सुनो माँ

सुनो माँ, मेरे जाने के बाद जब धुलना अपनी साड़ी 

तो देखना जरा ध्यान से 

आँचल पर होंगे कुछ दाग 

कुछ जिद्दी से नाकामियों के 

जिन्हे अनेकों बार छुड़ाने की कोशिश की 

मेहनत के ब्रश से, 

पर……………………………..

रह गया हर बार उनका कुछ अंश 

इसलिए पोंछ दिया उन्हें तुम्हारे आँचल में 

बस…….. अब हूँ निर्द्वन्द्व। 

सुनो माँ ध्यान से खोलना

तुम्हरे आँचल में लगी होगी एक गाँठ 

जिसमे बाँध दिया है मैंने अपना

मोह और प्रेम 

मोह……………. 

वही  जो रह गया अप्राप्य,

जिसके लिए किये अनेको यत्न,

और फिर वह प्रेम 

जो टूटकर भी जोड़ने में मग्न। 

देकर तुमको ये थाती अब जीवन है वितरागी 

सुनो माँ…………………. 

जैसे सहेज देती हो 

मेरे जाने के बाद 

मेरी छूटी हुई चीजें 

उसी तरह देखना कहीं आले पर 

रखा होगा मेरा बचपन 

किन्हीं दराजों में पड़ा होगा कोई स्वप्न 

उन्हें सम्हाल कर रखना 

जब तक मैं फिर से न लौट आऊं 

तुम तक………..

रचना : प्रीती सिंह – कानपुर 


 

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