जब मैंने बिन जन्म लिए ही
भोगी थी मरने की पीड़ा
तब भी क्यों तू
चुप ही थी माँ ?
जब बलात मुझको निकाल के
तेरे गर्भ से अपने मन से
फेंक दिया मुझको कूड़े पर
लिपटाकर मैले कपडे में,
मिला नहीं था अपने घर से
जाते – जाते एक कफ़न भी
तब भी क्यों कुछ न बोली माँ ?
जब भूखे आवारा कुत्ते
मुझे सड़क पर खींच रहे थे
मेरे कोमल मृत शरीर का
कतरा – कतरा नोच रहे थे
तब मेरी उस करुण दशा पर
तेरी अँखियाँ भी भीगी थी ?
तब भी क्यों तू चुप ही थी माँ ?
तेरी देह से रक्त मांस ले
मैं भी सीख रही थी बढ़ना
कुछ साँसे ले तेरे उर से
फिर उनको जीवन में भरना
पर लोगों ने तेरी गुड़िया
तेरी गोद से छीनी थी
तब भी क्यों तू
चुप ही थी माँ ????????
रचना : प्रीती सिंह – कानपुर