मन की व्यथा
जाने कितना राग संभाला , जाने कितना द्वेष सहा |
मन ही जाने मन की गति, मन में कितना विद्वेष रहा ||
मन के हारे हार हुईं हैं, मन के जीते जीत गए,
कभी कोर पलकों के भीगे,और कभी घट रीत गए |
सुख, दुःख, आशा और निराशा के भावों का संग रहा,
आँसू बनकर नयनों से, सारे जीवन का रंग बहा |
हाय बह गए पल जीवन के , हाथ नहीं कुछ शेष रहा,
मन ही जाने मन की गति, मन में कितना विद्वेष रहा ||
मेरे बचपन का साथी मन, बचपन के संग छूट गया,
काँच सरीखा मन था मेरा , छन से गिरकर टूट गया |
किस्सों के वो राजा रानी, और फ़कीर कथाओं के,
पँख लगाकर उड़े पँखेरु, मेरी अभिलाषाओं के |
पलक झपकते बचपन बीता, हाथ सिर्फ अवशेष रहा,
मन ही जाने मन की गति, मन में कितना विद्वेष रहा ||
मन के उपवन में सपनों के, भंवरे डोळे गली गली,
हुई सुवासित दिल की गलियां, नाची मन की कली कली |
जोश भरे जीवन के पीछे, मन की ही तरुणाई थी,
युवा स्वप्न सब नाच रहे थे, बस मदहोशी छायी थी |
फिर सुरूर मे बही जवानी, कुछ भी नहीं विशेष रहा,
मन ही जाने मन की गति, मन में कितना विद्वेष रहा ||
दुनिया भर मे भटका मैं , पर मन में वही अभाव रहा,
रही अजब सी बेचैनी, जाने कैसा अलगाव रहा |
बहकर उम्र किनारे आई ,तब मन को संज्ञान हुआ,
अंतिम दृश्य दिखा तब जाकर, इसको हरि का ध्यान हुआ |
वैसी ही गति अब पाएगा , जैसा था परिवेश रहा,
मन ही जाने मन की गति, मन में कितना विद्वेष रहा ||
जाने कितना राग संभाला , जाने कितना द्वेष सहा |
मन ही जाने मन की गति, मन में कितना विद्वेष रहा ||
लेखक – रोहित अवस्थी