सलोनी तिवारी: काशी में 26 फरवरी को महाशिवरात्रि का पावन पर्व मनाया जाएगा, जब बाबा विश्वनाथ मां गौरा के साथ विवाह करेंगे। यह पर्व हर शिव भक्त के लिए विशेष होता है, लेकिन नागा संन्यासियों के लिए इसका महत्व और भी अद्भुत है।
महाशिवरात्रि और नागा संन्यासियों की साधना
नागा संन्यासियों के लिए काशी में महाशिवरात्रि का स्नान और पूजा अनिवार्य मानी जाती है। मान्यता है कि काशी में स्नान और पूजा किए बिना उनकी कुंभ यात्रा पूरी नहीं होती। यह साधु किसी पूजन सामग्री का उपयोग नहीं करते, बल्कि गंगा तट पर अपनी धूनी रमाकर और ध्यान लगाकर भगवान शिव का आह्वान करते हैं।
महाकुंभ से काशी तक नागा संन्यासियों का आगमन
महाकुंभ में शाही स्नान के बाद हजारों नागा संन्यासी काशी पहुंच चुके हैं। वे हरिश्चंद्र घाट से मणिकर्णिका घाट तक अपनी धूनी रमाकर महाशिवरात्रि की साधना में लीन हैं। इस पर्व पर वे मां गंगा में स्नान कर बाबा विश्वनाथ का आशीर्वाद प्राप्त करेंगे।
महाशिवरात्रि का विशेष महात्म्य
नागा संन्यासियों की पूजा में किसी पारंपरिक पूजन सामग्री का प्रयोग नहीं होता, बल्कि गंगा किनारे जलती हुई धूनी की भस्म ही उनकी साधना का प्रमुख हिस्सा होती है। मान्यता है कि जब सूर्य मकर राशि में होता है, तब संन्यासी महाकुंभ में रहते हैं और जैसे ही सूर्य कुंभ राशि में प्रवेश करता है, वे अपने आराध्य की नगरी काशी की ओर चल पड़ते हैं।
शिवरात्रि पर शिव भक्तों की अटूट श्रद्धा
भगवान शिव को अघोर और मोर पगला भोला कहा जाता है। शिव भक्तों के लिए काशी की यह महाशिवरात्रि उनकी भक्ति और साधना का परम अवसर है। संन्यासी तब तक यहां रुकते हैं जब तक वे बाबा विश्वनाथ के दर्शन और पूजन पूर्ण नहीं कर लेते।
महाशिवरात्रि का यह पावन पर्व, काशी में भक्तों और साधुओं के शिव प्रेम और उनकी अटूट श्रद्धा का जीवंत उदाहरण प्रस्तुत करता है।