“मन की व्यथा” रोहित अवस्थी

मन की व्यथा

जाने कितना राग संभाला , जाने कितना द्वेष सहा |

मन ही जाने मन की गति, मन में कितना विद्वेष रहा ||

 

मन के हारे हार हुईं हैं, मन के जीते जीत गए,

कभी कोर पलकों के भीगे,और कभी घट रीत गए |

सुख, दुःख, आशा और निराशा के भावों का संग रहा,

आँसू बनकर नयनों से, सारे जीवन का रंग बहा |

हाय बह गए पल जीवन के , हाथ नहीं कुछ शेष रहा,

मन ही जाने मन की गति, मन में कितना विद्वेष रहा ||

 

मेरे बचपन का साथी मन, बचपन के संग छूट गया,

काँच सरीखा मन था मेरा , छन से गिरकर टूट गया |

किस्सों के वो राजा रानी, और फ़कीर कथाओं के,

पँख लगाकर उड़े पँखेरु, मेरी अभिलाषाओं के |

पलक झपकते बचपन बीता, हाथ सिर्फ अवशेष रहा,

मन ही जाने मन की गति, मन में कितना विद्वेष रहा ||

 

मन के उपवन में सपनों के, भंवरे डोळे गली गली,

हुई सुवासित दिल की गलियां, नाची मन की कली कली |

जोश भरे जीवन के पीछे, मन की ही तरुणाई थी,

युवा स्वप्न सब नाच रहे थे, बस मदहोशी छायी थी |

फिर सुरूर मे बही जवानी, कुछ भी नहीं विशेष रहा,

मन ही जाने मन की गति, मन में कितना विद्वेष रहा ||

 

दुनिया भर मे भटका मैं , पर मन में वही अभाव रहा,

रही अजब सी बेचैनी, जाने कैसा अलगाव रहा |

बहकर उम्र किनारे आई ,तब मन को संज्ञान हुआ,

अंतिम दृश्य दिखा तब जाकर, इसको हरि का ध्यान हुआ |

वैसी ही गति अब पाएगा , जैसा था परिवेश रहा,

मन ही जाने मन की गति, मन में कितना विद्वेष रहा ||

 

जाने कितना राग संभाला , जाने कितना द्वेष सहा |

मन ही जाने मन की गति, मन में कितना विद्वेष रहा ||

लेखक – रोहित अवस्थी

 

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